Tuesday, September 2, 2008

हिन्दी कविता

चिंता / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद"
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन
दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान
तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।
उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।
अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,
ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।
चिंता-कातर वदन हो रहा
पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।
बँधी महावट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल-प्लावन,
और निकलने लगी मही।
निकल रही थी मर्म वेदना
करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हँसती-सी पहचानी-सी।
"ओ चिंता की पहली रेखा,
अरी विश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण
प्रथम कंप-सी मतवाली।
हे अभाव की चपल बालिके,
री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,
ओ जल-माया की चल-रेखा।
इस ग्रहकक्षा की हलचल-
री तरल गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की,
और न कुछ सुनने वाली, बहरी।
अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-
अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,
पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।
मनन करावेगी तू कितना?
उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या?
तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।
आह घिरेगी हृदय-लहलहे
खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में
सब के तू निगूढ धन-सी।
बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,
चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।
विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।"
"चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जाती
रेखायें दुख की।
आह सर्ग के अग्रदूत
तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।
अरी आँधियों ओ बिजली की
दिवा-रात्रि तेरा नतर्न,
उसी वासना की उपासना,
वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।
मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में
सब कुछ ही बन गया हविष्य।
अरे अमरता के चमकीले पुतलो
तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि
बन कर मानो दीन विषाद।
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब
विलासिता के नद में।
वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,
बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर
दुख-जलधि का नाद अपार।"
"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या
स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी
ताराओं की कलना थी।
चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख-विश्वास।
सुख, केवल सुख का वह संग्रह,
केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का
सघन मिलन होता जितना।
सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,
वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता
उस समृद्धि का सुख संचार।
कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती
अरूण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में,
द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।
शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी
पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर
प्रतिदिन ही आक्रांत।
स्वयं देव थे हम सब,
तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से
कड़ी आपदाओं की वृष्टि।
गया, सभी कुछ गया,मधुर तम
सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित
मधुप-सदृश निश्चित विहार।
भरी वासना-सरिता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।"
"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी
सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह
मधु से पूर्ण अनंत वसंत?
कुसुमित कुंजों में वे पुलकित
प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें
और न सुन पडती अब बीन।
अब न कपोलों पर छाया-सी
पडती मुख की सुरभित भाप
भुज-मूलों में शिथिल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।
कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव,गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार।
सौरभ से दिगंत पूरित था,
अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी,
जिसमें पिछड़ा रहे समीर।
वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा
अंग-भंगियों का नत्तर्न,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा
मदिर भाव से आवत्तर्न।
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चिंता / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद"
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सुरा सुरभिमय बदन अरूण वे
नयन भरे आलस अनुराग़,
कल कपोल था जहाँ बिछलता
कल्पवृक्ष का पीत पराग।
विकल वासना के प्रतिनिधि
वे सब मुरझाये चले गये,
आह जले अपनी ज्वाला से
फिर वे जल में गले, गये।"
"अरी उपेक्षा-भरी अमरते री
अतृप्ति निबार्ध विलास
द्विधा-रहित अपलक नयनों की
भूख-भरी दर्शन की प्यास।
बिछुडे़ तेरे सब आलिंगन,
पुलक-स्पर्श का पता नहीं,
मधुमय चुंबन कातरतायें,
आज न मुख को सता रहीं।
रत्न-सौंध के वातायन,
जिनमें आता मधु-मदिर समीर,
टकराती होगी अब उनमें
तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।
देवकामिनी के नयनों से जहाँ
नील नलिनों की सृष्टि-
होती थी, अब वहाँ हो रही
प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।
वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि
रचित मनोहर मालायें,
बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें
विलासिनी सुर-बालायें।
देव-यजन के पशुयज्ञों की
वह पूर्णाहुति की ज्वाला,
जलनिधि में बन जलती
कैसी आज लहरियों की माला।"
"उनको देख कौन रोया
यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय
यह प्रालेय हलाहल नीर।
हाहाकार हुआ क्रंदनमय
कठिन कुलिश होते थे चूर,
हुए दिगंत बधिर, भीषण रव
बार-बार होता था क्रूर।
दिग्दाहों से धूम उठे,
या जलधर उठे क्षितिज-तट के
सघन गगन में भीम प्रकंपन,
झंझा के चलते झटके।
अंधकार में मलिन मित्र की
धुँधली आभा लीन हुई।
वरूण व्यस्त थे, घनी कालिमा
स्तर-स्तर जमती पीन हुई,
पंचभूत का भैरव मिश्रण
शंपाओं के शकल-निपात
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ
खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।
बार-बार उस भीषण रव से
कँपती धरती देख विशेष,
मानो नील व्योम उतरा हो
आलिंगन के हेतु अशेष।
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ
कुटिल काल के जालों सी,
चली आ रहीं फेन उगलती
फन फैलाये व्यालों-सी।
धसँती धरा, धधकती ज्वाला,
ज्वाला-मुखियों के निस्वास
और संकुचित क्रमश: उसके
अवयव का होता था ह्रास।
सबल तरंगाघातों से
उस क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी-
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी
ऊभ-चूम थी विकलित-सी।
बढ़ने लगा विलास-वेग सा
वह अतिभैरव जल-संघात,
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का
होता आलिंगन प्रतिघात।
वेला क्षण-क्षण निकट आ रही
क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ
उदधि डुबाकर अखिल धरा को
बस मर्यादा-हीन हुआ।
करका क्रंदन करती
और कुचलना था सब का,
पंचभूत का यह तांडवमय
नृत्य हो रहा था कब का।"
"एक नाव थी, और न उसमें
डाँडे लगते, या पतवार,
तरल तरंगों में उठ-गिरकर
बहती पगली बारंबार।
लगते प्रबल थपेडे़, धुँधले तट का
था कुछ पता नहीं,
कातरता से भरी निराशा
देख नियति पथ बनी वहीं।
लहरें व्योम चूमती उठतीं,
चपलायें असंख्य नचतीं,
गरल जलद की खड़ी झड़ी में
बूँदे निज संसृति रचतीं।
चपलायें उस जलधि-विश्व में
स्वयं चमत्कृत होती थीं।
ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें
खंड-खंड हो रोती थीं।
जलनिधि के तलवासी
जलचर विकल निकलते उतराते,
हुआ विलोड़ित गृह,
तब प्राणी कौन! कहाँ! कब सुख पाते?
घनीभूत हो उठे पवन,
फिर श्वासों की गति होती रूद्ध,
और चेतना थी बिलखाती,
दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।
उस विराट आलोड़न में ग्रह,
तारा बुद-बुद से लगते,
प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,
ज्योतिर्गणों-से जगते।
प्रहर दिवस कितने बीते,
अब इसको कौन बता सकता,
इनके सूचक उपकरणों का
चिह्न न कोई पा सकता।
काला शासन-चक्र मृत्यु का
कब तक चला, न स्मरण रहा,
महामत्स्य का एक चपेटा
दीन पोत का मरण रहा।
किंतु उसी ने ला टकराया
इस उत्तरगिरि के शिर से,
देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक
श्वास लगा लेने फिर से।
आज अमरता का जीवित हूँ मैं
वह भीषण जर्जर दंभ,
आह सर्ग के प्रथम अंक का
अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!"
"ओ जीवन की मरू-मरिचिका,
कायरता के अलस विषाद!
अरे पुरातन अमृत अगतिमय
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद!
मौन नाश विध्वंस अँधेरा
शून्य बना जो प्रकट अभाव,
वही सत्य है, अरी अमरते
तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।
मृत्यु, अरी चिर-निद्रे
तेरा अंक हिमानी-सा शीतल,
तू अनंत में लहर बनाती
काल-जलधि की-सी हलचल।
महानृत्य का विषम सम अरी
अखिल स्पंदनों की तू माप,
तेरी ही विभूति बनती है सृष्टि
सदा होकर अभिशाप।
अंधकार के अट्टहास-सी
मुखरित सतत चिरंतन सत्य,
छिपी सृष्टि के कण-कण में तू
यह सुंदर रहस्य है नित्य।
जीवन तेरा क्षुद्र अंश है
व्यक्त नील घन-माला में,
सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर
क्षण भर रहा उजाला में।"
पवन पी रहा था शब्दों को
निर्जनता की उखड़ी साँस,
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि
बनी हिम-शिलाओं के पास।
धू-धू करता नाच रहा था
अनस्तित्व का तांडव नृत्य,
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण
बने भारवाही थे भृत्य।
मृत्यु सदृश शीतल निराश ही
आलिंगन पाती थी दृष्टि,
परमव्योम से भौतिक कण-सी
घने कुहासों की थी वृष्टि।
वाष्प बना उड़ता जाता था
या वह भीषण जल-संघात,
सौरचक्र में आवतर्न था
प्रलय निशा का होता प्रात।

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मेरी कविता

सरल सुन्दर भाषा में लिखी गयी मेरी कविता
सभी के मन को भाती।
प्यार–मोहब्बत का सन्देश पहुँचाती
कभी गजल बन जाती
संगीत के सात सुर बन जाती।
कभी दुनिया की दास्ताँ सुनाती
माँ की ममता को उजागर कराती।
जातिपाँति का भेद मिटाती
एकता का प्रकाश फैलाती।
कभी आँखो में अश्क भर लाती
लबों पर मुस्कराहट लौटाती।
कभी बच्चपन की याद दिलाती
जवानी की कहानी सुनाती
कभी बुढ़ापे की सैर कराती
सरल सुन्दर भाषा में लिखी गयी मेरी कविता।

विपिन पवांर ‘‘निशान’’
10–01–2005, नई दिल्ली

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‘‘देख रहा हूँ मैं’’


आज देख रहा हूँ मैं
उन्नति पर उन्नति कर रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
अवन्नति की ओर भी जा रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
समन्दर की गहराईयों तक पहुँच रहे है लोग
आज देख रहा हूँ मैं
आसमाँ की ऊँचाईयों में उड़ रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
अन्य ग्रहों में जीवन की खोज कर रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
खुले आसमाँ के नीचे भी सो रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहें हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
पानी की बूँद के लिए भी तड़प रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
देश को उन्नति की ओर ले जा रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
देश को कंगाल करने की कोशिश कर रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
प्यार-मोहब्बत, भाईचारे की बात कर रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
पर्दे के पीछे बुराईयों की दुकान चला रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
अपनी संस्कृति, समाज को भूल रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
झूठ को सच्च साबित कर रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
आपस में झगड़ रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
खून की नदियां भी बहा रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
भूख से तड़प रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
सुख की खोज में भाग रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
दुःख को भूल गये हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे जा रहे हैं लोग
आज देख रहा हूँ मैं
भगवान के घर को भी तोड़ रहे हैं लोग
आज लिख रहा है ‘‘निशान’’
कितना बदल गया है इन्सान

विपिन पंवार ‘‘निशान’’ 27–09–2004


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जब यार देखा नैन भर / अमीर खुसरो

रचनाकार: अमीर खुसरो

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर ।
तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिली तुम आय कर ।
जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर ।
मेरी जो मन तुम ने लिया, तुम उठा गम को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर ।
खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर ।